अर्थ व्यवस्था घाटे में है
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याद रहे 5 जून यानि सम्पूर्ण क्रांति दिवस
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राजनीति का पहिया उलझा,
भेद भाव के धागे में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
अपने पास रहे हैं नेहरू,
मनमोहन नरसिंह राव भी।
सात साल से देश पा रहा,
मोदी जी का सबल छांव भी।
फिर भी देश का हीरा मोती,
कुछ सेठों के खाते में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
रोज बनाए नई योजना,
रोज रहे कानून जागते।
रोज रोज आगे बढ़ने को,
नेता, अफसर रहे हांफते।
फिर भी भूख दहाड़ रही है,
कर्जा बन्द लिफाफे में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
ऐसा नहीं कि कंगाली है,
अपुन देश में भी लाली है।
सिस्टम जी के घर में देखो,
केवल दिखती हरियाली है।
इसके बाद बचा जो जूठन,
नेताओं के हाते में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
फिर भी कोई हँस लेता तो,
विस्मय होता कौन हंसा है।
सिस्टम बतलाता शासन को,
हमसे खुश हो मौन हँसा है।
समझाता है कमी नहीं है,
अभी रसोईं साझे में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
पहले चुनरी में धब्बा था,
अब धब्बे की ही चुनरी है।
पहले थे गिनती के दागी,
अब दागी वाली गठरी है।
पहले दाग रहा कपड़े पर,
अब बहुतों के माथे में है।
साढ़े सात दशक बीते पर,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
दूर दूर तक रात अंधेरी,
दूर दूर तक ना है राहत।
कोने कतरे हाँफ रही है,
इसे बदलने की अकुलाहट।
जो हैं इस हालत का दोषी,
पन्च उन्हीं के नाते में है।
सात दशक बीते पर अपनी,
अर्थ व्यवस्था घाटे में है।
– धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव संरक्षक मानव सेवा समिति सिखड़ी गाजीपुर